बुधवार, 4 नवंबर 2009
शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009
घर से दूर
घर से दूर मंजिल की तलाश में,
ऐसा लगता है की जैसे
ममता की छांव से निकलकर,
चिलचिलाती धुप में आ गया हूँ ,
जिधर देखो गिध्हों और चम्गादरों की भीड़,
जो लुटने और खून पीने को तैयार,
बच्चियो, लड़किओं और औरतों की ओर
देखती इनकी नंगी आँखों में
द्रोपदी के चीरहरण को रोज महसूस करता हूँ
जी करता है कई बार लौट जाऊं
वापस उसी ममता की गोद में,
पाऊं वहीं मंजिल, जिसे पाने की चाह में
छोड़ के आ गया अपने लोगों को,
मगर मंजिल पाना भी जरुरी है,
हमारे लिए खुद को साबित करने के लिए,
जिसे पाने की चाह में,
छोड़ के आ गया वो रिश्ते-नाते,
लगातार...........
जिसे पाने की चाह में,
छोड़ के आ गया वो रिश्ते-नाते,
लगातार...........
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